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Manqabat

 

कौकब साहब के कुछ अशआर

 

किस की जफा, कहाँ की वफ़ा, कैसी आशिक़ी,  

जब ख़ाक में मिले तो सब अफ़साना हो गया

 

            कौकब  की शायरी में इश्क़ मजाज़ी से इश्क़ हक़ीक़ी की तरफ़ मरा जअत नज़र आती है :-

 

अपने कूचे में बनाने भी दो कौकब का मज़ार,

जो कोई पूछे ये कह देना किसी बिस्मिल का है

 

            उनके कलाम में तशबिहात,तलमिहात उम्मीद जोश और वलवला भी पाया जाता है : -       

 

युसुफ़ भी इस जमाल का दीवाना हो गया

जो था चिराग हुस्न वो परवाना हो गया

           

            कौकब अपने अशआर अरबी अल्फ़ाज़ का इतना बेहतरीन इस्तेमाल करते हैं जैसे किसी फनकार ने अंगूठी  में नगीने जड़े हों : -

 

 “कुन्त कंजा “ से है मतलब तेरी पर्दा पोशी,

 मानी “कुन फ़याकुन” तेरा नुमायां  होना

 

            उनका रुझान बचपन से ही दीनदारी की तरफ़ था ,सिलसिला चिश्तिया,कादरिया के मशहूर बुज़ुर्ग और सूफ़ी शाह फ़र्रूक हसन

( उर्फ़ मौधू मियाँ  ) से बयेत हो गए ,नेज़े  शेर ओ शायरी का रुख़ इबादत वा रियाज़त की तरफ़ मोड़  दिया ज़्यादा  तर वक़्त इबादत वा रियाज़त में गुज़ारने लगे ,यहाँ तक गोशाए नशीनी इख्तियार कर ली और बिना वजह मिलना जुलना भी कम कर दिया ,हमेशा बावज़ू रहते ,हर वक़्त तसबी हांथ में रहती और जिक्रे इलाही में लुत्बे अल्लिसान  रहते, पीरो मुर्शिद के खलीफ़ा मजाज़ शाह मुहम्मद नज़र शाह ने ख़िलाफ़त अता कर दी ,अब दूसरे लोगों की भी इसलाह करते

  

            नुमायां कलाम

 

अब तक सुकूने दिल नहीं अरसा गुज़र गया

क्या दूसरी नज़र की तमन्ना करे कोई ,

 

क्या नतीजा अए रफ़ूगर सई ला हासिल का है

साथ देगा उम्र भर वो चाक  मेरे दिल का है

खाके गुलशन की हवा गुंचे खिलें बुलबुल तो क्या

बेकली है मुस्कुराना काम ज़ख्मे दिल का है

मुद्दतों छिपते नहीं है खून नाहक का असर

ज़र्रा ज़र्रा  सुर्ख़ अब तक कूचा ये कायल का है

अपने कूचे में बनाने भी दो कौकब का मज़ार

जो कोई पूछे ये कह देना किसी बिस्मिल का है

 

"ज़ख्म चौड़े हो गए फ़ट कर दिले तसख़ीर के

ऐसी बेदर्दी से खीचे तुम ने पीका क़ब्र के….  

 

 

 

 

 

 

 

नात शरीफ़

 

मुहम्मद के हम हैं हमारे मुहम्मद यही नाम हरदम लिए जा रहे हैं

ना दुनियाँ का ख़तरा ना उक़्बा का डर है उन्ही के सहारे जिये जा रहे हैं   

सलामत रहे उनके क़दमो की बरकत जो मिल जाए किस्मत से अल्लाह रे किस्मत

वो जलवा दिखाएँ वो तशरीफ लाएँ इसी आसरे पे जिये जा रहें हैं

न अब जाम मीना की हाजत है बाक़ी न कोई ज़रूरत रही मयकदे  की

निगाहें मदीने की जानिब लगी हैं शराबे मुहब्बत पिये जा रहे हैं

निगाहों मे तस्वीर दिल में मुहब्बत ख़याले मुहम्मद सरापा  मुहम्मद

वही सामने हैं वही सामने हैं निगाहों से सिजदे किए जा रहें हैं

 

 

                                    मनक़बत

दर शान महबूब इलाही हज़रत निज़ामुदीन (रह )औलिया रहमतुल्लाह अलैहि

 

ख़्वाजा कुतुब की आँख के तारे निज़ामुदीन,गंजे शकर के राज दुलारे निज़ामुदीन

 

महबूबियत की जान हैं प्यारे निज़ामुदीन,पर्दे में लाख जलवे संवारे निज़ामुदीन

 

ले जा रही है मौजे मुहब्बत उसी तरफ़ ,किश्ती में हम हैं और किनारे निज़ामुदीन

 

सुल्तान जी गरीबों के वाली सख़ी ख़िताब ,हम भी खड़े हैं तेरे सहारे निज़ामुदीन

 

खुल जाए उस पे राज़े हक़ीक़त ख़ुदा गवाह ,”साग़र” जो कोई दिल से पुकारे निज़ामुदीन

 

 

                                    मनक़बत

 

दर शान सय्यद मुहम्मद अहमद साहब रहमतुल्लाह अलैहि

 

वो है अंदाज़ शाहाना शहे सुल्तान आलम का , की इक आलम है दीवाना शहे सुल्तान आलम का

 

निगाहें जब उठे उनकी ख़तायें बख़्श दें सारी , ज़हे तरज़े किरमाना शहे सुल्तान आलम का

 

दिलो जां दीनों ईमा सब ही तो उनकी अमानत हैं ,करूँ क्या पेश नज़राना शहे सुल्तान आलम का

 

इलाही ता अबद चलता रहे ये दौरे मएनोशी ,रहे आबाद मयख़ाना शहे सुल्तान आलम का 

 

जिधर से मै गुज़रता हूँ सभी ये कहने लगते हैं ,ये दीवाना है दीवाना शहे सुल्तान आलम का

 

नहीं है होश में अब उनका “साग़र” अये  ज़हे मस्ती ,पिया है जब से पैमाना शहे सुल्तान आलम का