एक अल्फ़ाज़ जिसे आम बोली में लोग "मुहब्बत" कहते हैं,आज की मस़रूफ़ ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा बन गया है। लोग एक दूसरे से इज़हार भी इसी मुहब्बत का कर रहे हैं,उनको भले एक-दूसरे के लिए वक़्त नहीं इस अल्फ़ाज़ को पूरा करने का , लेकिन किसी न किसी रूप में वो इस मुहब्बत की अदायगी कर रहे हैं,वालिदैन अपने बच्चों का फ़र्ज़ अदा करके,शौहरऔर बीबी एक दूसरे के हुक़ूक अदा करके,औलाद अपने वालिदैन की ख़िदमत करके,दोस्त अपने दोस्त की ग़म और ख़ुशी में शरीक होके ,इसअल्फ़ाज मुहब्बत का फ़र्ज़ अदा कर रहे हैं,भले ही वो अधूरा हो लेकिन उनकी नज़रो में वो पूरा हो रहा है ।इसी तरह हम क़ुरबत की बात करें तो वो सब नहीं कर सकते क्योंकि क़ुरबत
मुहब्बत से बहुत ज़्यादा गहरा अल्फ़ाज़ है उसके लिए आपको उस शख़्स का ग़ुलाम होना पड़ता है जिससे आप क़ुरबत रखते हैं या जिससे आप को क़ुरबत हो जाये,जैसे मुरीद को अपने मुर्शिद से । बस एक यही ऐसी मिसाल है जो ख़ुद में बेमिसाल है क्योंकि जब कोई आम ज़िन्दगी जीने वाला इन्सान ख़ुद को किसी पीर से बैत करता है तो जो तब्दीली उसकी ज़िन्दगी में आतीं हैं उसका उसे तसव्वुर भी नही होता है,उसको कोई इल्म नहीं होता। अगर उसके दिल में सच में ईमान हो तो दुनिया की कोई ताक़त उसकी क़ुरबत को कम नहीं कर सकती ,चाहे उसे कुछ हासिल हो या न हो,उसको कोई बरगला नहीं सकता , क्योंकि यह "मुहब्बत" नहीं
ये "क़ुरबत " होती है जो अगर पनप जाये तो कभी मिट नहीं सकती ।और ये रास्ते अल्लाह वालों के होते हैं,आम इन्सान के नहीं,और अल्लाह जिसे जैसे चाहे जितना चाहे उसको वैसेअता करता है। अल्लाह हू अकबर।
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